उत्तराखण्डधर्मराज्य

भक्ति मार्ग का ‘संघर्ष’ देता है, ईश्वर प्राप्ति का ‘दिव्य उत्कर्ष’: भारती

देहरादून। मिटा दे अपनी हस्ती को, गर कुछ मर्तबा चाहे, दाना खाक़ में मिलकर, गुले-गुलज़ार होता है। ईश्वर भक्ति का मार्ग एक भक्तात्मा से यही कुछ अपेक्षा रखता है। पूर्ण गुरु के कृपाहस्त तले जब ‘ब्रह्मज्ञान’ से जनित ‘परमभक्ति’ का मनुष्य के जीवन में पदार्पण होता है, तब! सदगुरूदेव भक्ति रूपी एक बीज का रोपण शरणागत के भीतर किया करते हैं, यह बीज परवान चढ़ने की दिशा में जब! बढ़ने लगता है, तब! स्वयं को मिटा देने की ललक से यह भरा हुआ होता है और अनेकानेक संघर्षों के जटिल पड़ावों को अपने जीवन दाता सदगुरू के सशक्त संरक्षण में पार करते हुए स्वयं को तपाता है, थकाता है, पकाता है और अपनी जीवन यात्रा को पूर्ण रूपेण अपने उस रहबर के हवाले किये रहता है जिस समर्थ रहबर की कृपाछांव उसे निरंतर आगे ही आगे बढ़ाती जाती है और अन्ततः उसे एक गहन जड़ों वाला विशाल फलदार, छायादार वृक्ष के रूप में परिणत कर देती है। यही मनुष्य के भक्ति मार्ग के दिव्य सफ़र की परिणीति भी हुआ करती है। गुरु के ज्ञान की प्राप्ति के उपरांत शिष्य की जीवन यात्रा गुरु के ही दिव्य मार्गदर्शन में एक दिवस इसी प्रकार से ‘फलीभूत’ हो जाया करती है।
यह विचार दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की देहरादून शाखा के मध्य सद्गुरू आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी के द्वारा व्यक्त किए गए। अवसर था संस्थान द्वारा प्रत्येक रविवार को आयोजित किए जाने वाले साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का।
आज के कार्यक्रम में प्रस्तुत मनभावन भजनों की श्रंखला पर संगत झूम-झूम उठी। भजनोें में व्याप्त गूढ़ आध्यात्मिक तथ्यों की सटीक विवेचना करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी स्मिता भारती जी के द्वारा किया गया। उन्होंने कहा कि मनुष्य का हृदयपात्र जो जन्मों-जन्मों तथा वर्तमान जन्म के अनेक मलिन कुसंस्कारों के कारण सर्वथा मैला ही होता है, अब! यदि यह कहा जाए कि पहले पात्र को स्वच्छ-साफ करें तब ईश्वर की परम भक्ति का पदार्पण हो सकेगा और तभी ईश्वर की भी प्राप्ति संभव हो पाएगी, तो! ऐसा तो कभी भी सम्भव नहीं हो पाएगा, क्योंकि! पात्रता का विकास कर इसे सुपात्रता में विलय कर पाना मानव के अपने वश की बात ही नहीं है, क्योंकि! वह तो पूर्णता असमर्थ है, तो फिर अपनी पात्रता के विकास हेतु वह जाए भी तो आखिर किधर जाए? तब! हमारे समस्त पावन ग्रंथ-शास्त्र, जो कि महापुरुषों के अपने जीवन के दिव्य अनुभव होते हैं, वे बताते हैं कि मनुष्य को किसी ऐसे संत-सद्गुरु की तलाश करनी होगी जो स्वयं तो पूर्ण हैं ही, साथ ही अपनी शरण में आने वाले शरणागत को भी ईश्वर की प्राप्ति का ‘पूर्ण पात्र’ बना देने में सक्षम हुआ करते हैं। उन्हीं सद्गुरु की प्राप्ति तथा उनसे प्राप्त पावन ब्रह्मज्ञान के आलोक में मनुष्य की वह पात्रता पूर्ण रूप से विकसित हो पाती है जिसके द्वारा उसे ईश्वर की प्राप्ति और अपना चौरासी का आवागमन समाप्त करने में सफलता प्राप्त हो जाती है। प्रसाद का वितरण करते हुए साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।

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