उत्तराखण्डधर्मराज्य

बाल दिवस पर विशेष – अध्यात्म और शिक्षा

– संत राजिन्दर सिंह जी महाराज
पूर्वी देशों में यह माना जाता है कि मनुष्य के तीन पहलुओं का विकास होना चाहिए – शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। हमने बुद्धि और शरीर के स्तर पर बहुत उन्नति की है लेकिन हम अपने आध्यात्मिक पक्ष को पूरी तरह भूल चुके हैं।
प्राचीन संस्कृतियों में नैतिक गुणों का विकास, हमारे शिक्षा व्यवस्था का आवश्यक अंग था। विद्यार्थियों के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास की पूरी व्यवस्था थी, जिसमें नैतिक शिक्षा भी शामिल थी। पिछली सदी में दुनियाभर की शिक्षण संस्थाओं में नैतिक गुणों की शिक्षा में कमी आई है क्योंकि केवल शैक्षिक उन्नति पर ही पूरा जोर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज हमारे सामने एक ऐसी पीढ़ी है जिसमें नैतिक मूल्यों का नितांत अभाव है। सड़कों पर अपराध, बच्चों में हिंसा, खुशी पाने के लिए नशीले पदार्थों और शराब का सेवन और बिना बात पर हिंसा। यह सब युवा पीढ़ी को तैयार करते समय नैतिक शिक्षा के अभाव के कारण है। व्यक्तिगत और विश्व-स्तर पर शांति लाने के लिए यह जरूरी है कि हम बच्चों को कम उम्र से ही सही शिक्षा देना शुरू करें। यदि हम उन्हें सही और गलत का अर्थ समझाएँ तो वे ऐसे इंसान बन पाएंगे, जिनके अंदर सदाचारी गुणों का समावेश होगा और जो ना केवल अपने लिए बल्कि अपने समाज के लिए बेहतर निर्णय ले सकेंगे।
इसके लिए हमें विद्यार्थियों को एक संतुलित षिक्षा देनी होगी। दुनियाभर की शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थिंयों के शारीरिक और मानसिक विकास पर ध्यान दिया जाता है। स्कूलों में स्वास्थ्य, सुरक्षा और पोषण की कक्षाएं होती हैं। विभिन्न विषयों में विद्यार्थियों को विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान, भाषा और साहित्य पढ़ाया जाता है। विद्यार्थी कला और संगीत भी सीखते हैं। इस तरह अधिकतर स्कूलों में आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा कहीं नज़र नहीं आती। हमारे बच्चों के भविष्य के लिए यह जरूरी है कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को इस तरह तैयार करें जिसमें अध्यात्म और नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी दी जाए।
हमारे नैतिक विकास का अर्थ है कि हम ऐसे इंसान बनें जो कि प्रेम, दया सच्चाई और नम्रता से भरपूर हांे। बच्चों के सामने हम इन गुणों से भरपूर एक आदर्श जीवन का उदाहरण पेश करें ताकि वे भी इन गुणों को अपने जीवन में धारण करें। इसके लिए स्कूलों में प्रतिदिन एक पीरियड, आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा के लिए होना चाहिए, जिसमें विद्यार्थी अन्य देशों की संस्कृति और वहँा के लोगों के बारे में जानकारी पाएं तथा साथ ही साथ विभिन्न धर्माे का तुलनात्मक अध्ययन भी करें। इस तरह उन्हें अनेकता में एकता का संदेश प्राप्त होता है। इसके अलावा विद्यार्थियों को ध्यान-अभ्यास पर बैठने के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वे अपने अन्दर ही शांति का अनुभव कर सकें।
ध्यान का सम्बन्ध किसी धर्म विशेष से नहीं है। प्रत्येक विद्यार्थी चाहे किसी भी देश अथवा धर्म से सम्बन्ध रखता हो, इकटठ्ा बैठकर ध्यान-अभ्यास की कला को सीख सकता है। इस शांतिमय ध्यान के पीरियड में विद्यार्थी अपने भीतर स्थित आत्मिक धन की खोज करते हैं ताकि वे अपने शरीर और मन के प्रति पूरी तरह जागृत हों। ध्यान उन्हें अपने सच्चे आत्मिक रूप को जानने में मदद करता है। इसके अलावा उन्हें अहिंसा, सच्चाई, नम्रता, पवित्रता, करुणा और निष्काम सेवा आदि सदगुणों के बारे में भी सीखने का मौका मिलता है, जिससे कि वे इन सद्गुणों को अपने जीवन में धारण करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।
अपने आत्मिक स्वरूप को जान लेने पर विद्यार्थियों में अपने आप ही एक उच्च समझ पैदा होती है कि सभी लोगों में प्रभु की एक ही ज्योति और प्रभु का प्रेम विद्यमान है। यह अनुभव उन्हें सहनशील और सबसे प्रेम करना सिखाता है। उन्हें यह ज्ञान होता है कि अलग-अलग रूप-रंग के बावजूद हम सब एक ही ज्योति से बने हैं। इस समझ को पाकर वे सबसे प्रेम करना सीखते हैं। जब हम दूसरों से प्रेम और उनका आदर करना सीखते हैं तो हम खुद-ब-खुद शांत और अहिंसक बन जाते हैं। जब हम सभी को एक ही मानव परिवार का अंग समझते हैं तो हमारे अन्दर दूसरों के प्रति करुणा का भाव जागृत होता है क्योंकि हम अपने परिवार के किसी सदस्य को पीड़ा पहुँचाने के बारे में कभी स्वप्न में भी नहीं सोचेंगे। इस तरह नैतिक मूल्यों से शिक्षित, संस्कारवान विद्यार्थी अपने मानव परिवार के किसी सदस्य को दुःख नहीं पहुँचाएंगे।
सभी के लिए चाहे वह विद्यार्थी हो, शिक्षक हो या कोई और, अपने आपको जानने और अपने अन्तर में स्थित प्रभु-सत्ता से जुड़ने के अलावा, ज्योति व शब्द का अभ्यास करने के और भी अनेक लाभ होते हैं। ध्यान-अभ्यास के समय जब हम आँखें बंद करके अपने अन्तर में टकटकी लगाकर देखते हैं, तब हम अपने ध्यान को एकाग्र कर रहे होते हैं। यदि हम इसी एकाग्रता द्वारा अपने मन को षांत करना सीख लें तो हम इस तकनीक को अपने दैनिक जीवन में भी अपना सकते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम जो भी पढ़ते हैं उसे अच्छी तरह समझ लेते हैं, जिससे कि हम अपना काम तेजी से पूरा कर लेते हैं। ध्यान-अभ्यास हमारी बौद्धिक योग्यता बढ़ाने के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य को बेहतर करने में भी मदद करता है, जिससे कि हम तनावमुक्त जीवन व्यतीत करते हैं। हम अनावश्यक आक्रोश से बचते हैं और जीवन की कठिनाइयों और तनावों का बेहतर ढंग से सामना करते हैं।
इसलिए यदि विद्यार्थिंयों को छोटी उम्र से ही ध्यान-अभ्यास और एकाग्रता की विधि सिखाई जाए तो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से उनका विकास बेहतर होगा। वे हर इंसान में और हर प्राणी में प्रभु की ज्योति को देखंेगे। उनके मन में सारी मानवता के लिए प्रेम और करुणा का भाव होगा। यदि संसार की सभी शिक्षण संस्थाएँ, ध्यान-अभ्यास और आध्यात्मिक शिक्षा को अपने पाठ्यक्रम को स्थान दें तो अब से पन्द्रह, बीस या पच्चीस साल बाद हम ऐसे इंसान बना पाएँगे जो प्रेम और दया से ओत-प्रोत हों। यह एक ऐसे युग का सूत्रपात होगा, जिसमें लोग अपने लिए अधिक से अधिक संचय न करके दूसरों की सहायता करना चाहेंगे। यह एक ऐसा स्वर्णयुग होगा जिसमें हम अपने पड़ोसी, अपने समाज और सृष्टि के हर जीव की देखभाल करेंगे। यदि बौद्धिक और शारीरिक शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को नैतिक शिक्षा भी दी जाए तो यह संसार शांति और आनन्द का स्थान बन जाएगा।

 

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